Saturday 16 May 2015

सीबीसीएस में चॉइस किसके लिए

SFI की पत्रिका छात्र संघर्ष के नए अंक में प्रकाशित दिल्ली विश्वविद्यालय के डेमोक्रेटिक टीचर्स फ्रंट के सचिव और दयाल सिंह कॉलेज में हिंदी के शिक्षक राजीव कुंवर का लेख
भारत जैसे विविधता वाले देश में उच्च शिक्षा की एकरूपता की योजना का दूसरा नाम है चॉइस बेस्ड क्रेडिट सिस्टम। पिछली कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार हो या वर्तमान बीजेपी की सरकार- दोनों इस नीति को आगे बढ़ाने में लगे रहे हैं। विश्वविद्यालय की अवधारणा स्वायत्तता पर आधारित रही है। यही कारण था कि भारत जैसे विविधता वाले देश में शिक्षा राज्य और केंद्र दोनों के अनुसूची में शामिल रहा।
अपनी अपनी ज़रूरतों के अनुरूप राज्य और केंद्र की सरकारों ने शिक्षा की नीति एवं प्रणाली बनायी। फिर आज ऐसी क्या ज़रूरत आ गयी कि केंद्रीय सत्ता उच्च शिक्षा को अपने नियंत्रण में लेकर उसे एकरूपता प्रदान करने पर उतारू है ? क्या भारत की विविधता ख़त्म हो गयी है ? पिछले कुछ सालों से लगातार एक बात दुहरायी जा रही है कि हमारे विश्वविद्यालय दुनिया के 200 और 400 विश्वविद्यालयों की लिस्ट में कहीं नहीं हैं। सो उच्च शिक्षा में सुधार की ज़रूरत है। तब सवाल यह है कि क्या इन सुधारों की वजह उच्च शिक्षा के स्तर को ऊपर उठाना है ? एक और बात कही जा रही है कि अभी की शिक्षा प्रणाली से जो विद्यार्थी निकल रहे हैं वह आज के बाज़ार के लिए योग्य नहीं हैं। सो आज के बाज़ार के अनुरूप योग्यता को ध्यान में रखते हुए उच्च शिक्षा में परिवर्तन या सुधार की ज़रूरत है। ये सभी सवाल गंभीर हैं। सो देखना ज़रूरी है कि इन सभी सवालों का क्या गंभीर जवाब है यह चॉइस बेस्ड क्रेडिट सिस्टम ? इसके लिए पहले हमें यह जानना ज़रूरी है कि चॉइस बेस्ड क्रेडिट सिस्टम है क्या ?अभी दो महीने पहले मानव संसाधन मंत्रालय ने 2015 के नए सत्र से सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों को CBCS लागू करने का निर्देश दिया है। महत्त्वपूर्ण है कि दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे बड़े संस्था में जहाँ 75 कॉलेज हैं और 55 हजार विद्यार्थियों का दाखिला प्रति वर्ष लिया जाता है - अभी तक शिक्षकों से इसकी चर्चा भी शुरू नहीं हुयी है। नामांकन की प्रक्रिया शुरू हो गयी है और किसी को कुछ भी पता नहीं है कि क्या होने वाला है। 2013 में इसी तरह से FYUP लाया गया था। जिसे काफी विरोध के बाद 2014 में वापस ले लिया गया। उसके पहले 2009 में सेमेस्टर प्रणाली को भयानक विरोध के बावजूद थोप दिया गया। यानि कुलमिलाकर देखें तो 2008 से ही 'सुधार' की प्रक्रिया शुरू हो गयी। जबरदस्त विरोध की वजह से टुकड़ों में CBCS को लागू करने की प्रक्रिया जारी है। 2009 के केंद्रीय विश्वविद्यालयों के लिए बने एक्ट में ही इस CBCS को डाल दिया गया। बाकी के विश्वविद्यालयों को यू.जी.सी. ने 2008 में निर्देश भेजा जिसमें सेमेस्टर प्रणाली और CBCS लागू करने के लिए कहा गया था। चुकी इसे UGC ने अनुदान से जोड़ दिया सो अधिकांश विश्वविद्यालयों ने सेमेस्टर को अपना लिया। आज हिमाचल हो या मध्यप्रदेश, केरल हो या तमिलनाडु सब जगह इसका विरोध हो रहा है। जहाँ साल में एक बार परीक्षा लेकर रिजल्ट देना ही चुनौती थी, वहाँ अब दो बार परीक्षा बस दिखावा होकर रह गया है। अधिकांश राज्यों में अब मात्र नामांकन हो रहा है और परीक्षा आयोजित हो रहा। शिक्षकों की बहाली नहीं हो रही। सो कक्षा होने का कोई मतलब नहीं रह गया है। ऐसे में इस 'सुधार' की समीक्षा के बाद आगे बढ़ने की कोशिश होती तो उसे ईमानदार कोशिश कह सकते थे। परन्तु बिना सेमेस्टर की समीक्षा किये विश्वविद्यालयों को 'सुधार' के अगले चरण में धकेलना देश की पूरी शिक्षा व्यवस्था को अंधे सुरंग में ले जाने की तैयारी ही कही जायेगी।
CBCS में देश के सभी विश्वविद्यालयों में एक ही प्रणाली यानी सेमेस्टर प्रणाली की बात कही गयी है। इसके साथ ही जिस बात पर सबसे ज्यादा जोर दिया गया है वह है विद्यार्थियों की एक संस्थान से दूसरे में आवाजाही (मोबिलिटी)। इसलिए एक मात्र प्रणाली सेमेस्टर के साथ ही मूल्यांकन के लिए एक ही पद्धति यानि कॉमन ग्रेडिंग सिस्टम एवं क्रेडिट ट्रांसफर की बात की गयी है। विद्यार्थियों के गुणों को अंक में निर्धारित करने की पद्धति को मूल्यांकन पद्धति कहते हैं। कहीं यह ग्रेडिंग से होता रहा है तो कहीं अंकों से। मूल्यांकन का जो भी तरीका रहा हो वह वहां के पढ़ाने वाले की योग्यता, छात्र-शिक्षक अनुपात, कोर्स, पुस्तकालय, पठन-पाठन के वातावरण आदि से सुनिश्चित होता है। भारत जैसे भेद भाव और विविधता वाले देश में एक ही शिक्षण और मूल्यांकन प्रणाली किसी भी तरह से सकारात्मक परिणाम नहीं दे सकता। तब यह सवाल महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि क्या भारत में विद्यार्थियों की एक संस्थान से दूसरे में आवाजाही कोई समस्या है जिसका नुकसान उन्हें उठाना पर रहा है ? जिस भारत में आज भी जाति और लिंग के आधार पर भेदभाव हो रहा है और संसाधन के अभाव में बाहर जा पाना उनके लिए संभव नहीं हो, वहाँ इसे सबसे बड़ी समस्या के तौर पर पहचानना और उसके अनुकूल 'सुधार' करना - किसलिए ज़रूरी है ?यहाँ हमें CBCS के एक और पहलू 'विकल्प आधारित कोर्स' (चॉइस बेस्ड कोर्स) को समझना भी ज़रूरी है।सभी विश्वविद्यालयों के लिए एक सामान्य पाठ्यक्रम ढाँचा - फाउंडेशन, कोर, एलेक्टिव और एप्लीकेशन- का बनाया गया है। यह वही मॉडल है जिसे DU में FYUP के नाम पर लगाया गया था। जिसकी गुणवत्ता के हास्यास्पद होने को सभी शिक्षाविदों ने माना था। जिसे 2014 में वापस किया गया। इस सामान्य पाठ्यक्रम ढाँचे के लिए पिछले महीने ही UGC ने केंद्रीकृत तरीके से बनाये गए सिलेबस में मात्र 20 प्रतिशत फेरबदल के साथ लागू करने का निर्देश दिया है। यह भारत जैसे विविधता वाले देश में ज्ञान के वैविध्य को ही नष्ट करने का नजरिया है। हाल में ही छपे नयनजोत लाहिरी के लेख में इतिहास के पाठ्यक्रम से इसके हास्यास्पद होने को समझा जा सकता है। देश के सभी विश्वविद्यालय आखिर दिल्ली का इतिहास क्यों पढ़ें ? क्योंकि सिलेबस दिल्ली विश्वविद्यालय का उठाकर ले लिया गया है इसलिए ? इसके साथ ही CBCS में स्किल बेस्ड/वोकेसनल कोर्स को भी शामिल करने का निर्देश दिया गया है।इसतरह हम कह सकते हैं कि CBCS में मुख्य रूप से 1. सेमेस्टर प्रणाली में मोड्यूलर कोर्स एवं सतत परीक्षण(कंटीन्यूअस इवैल्यूएशन), 2.क्रेडिट ट्रांसफर, 3. विकल्प आधारित कोर्स जिसमें "कैफेटेरिया एप्रोच" 4. कॉमन ग्रेडिंग सिस्टम, 5. सामान्य पाठ्यक्रम ढाँचा एवं उसके लिए केंद्रीकृत तरीके से तैयार सिलेबस जिसमें मात्र 20 प्रतिशत तक बदलाव किया जा सकता है, 6. व्यावसायिक/कौशल आधारित कोर्स को इसके साथ जोड़ना।अनुशासन आधारित पाठ्यक्रम में व्यावसायिक/कौशल शिक्षण को जोड़ने का यह ढाँचा अमेरिका के कॉम्युनिटी कॉलेज और विश्वविद्यालय के संयोजन का परिणाम है। एक दो पेपर पढ़कर व्यावसायिक शिक्षण एवं कौशल का निर्माण संभव नहीं होगा, हाँ अनुशासन के कुछ पेपर कम ज़रूर हो जायेंगे।तब एक बार फिर इसपर विचार ज़रूरी है कि आखिर क्यों इसे जबरन थोपने की कोशिश की जा रही है ? इसके पीछे की राजनीति क्या है ? किसे इसका फायदा होगा ? तब इसका एक ही उत्तर है कि जो हाल पिछले सालों में सरकारी स्कूलों एवं अस्पतालों का किया गया वही हाल उच्च शिक्षा के साथ किया जा रहा है। सरकारी स्कूल और अस्पताल बर्बाद होने के साथ ही निजी स्कूलों और अस्पतालों का विस्तार हुआ। वैश्वीकरण की नीति है - पूँजी का मुनाफे के लिए एक राष्ट्र से दूसरे राष्ट्र में बेरोकटोक आवाजाही। सो अब बारी है उच्च शिक्षा की। उसमें देशी-विदेशी पूँजी के निवेश की। अब तक शिक्षा में मुनाफा कमाने की इजाज़त नहीं थी। 12 वीं योजना में इसे भी खोलने की तैयारी कर ली गयी है। तमाम बिल पार्लियामेंट में पास नहीं हो पाने की वजह से अटके पड़े हैं, सो UGC के जरिये इन्हें पीछे के रास्ते से लाया जा रहा। राष्ट्रीय शिक्षा नीति को बिना बदले ये सभी बदलाव किये जा रहे। RUSA के नाम पर पहले राज्य सरकारों को पैसा दिया गया और फिर उन्हें मजबूर कर दिया गया कि CBCS को स्वीकार करें।जब तक समान शैक्षणिक सुविधाएँ नहीं होंगी, तब तक समान शैक्षणिक कार्यक्रम बची खुची शैक्षणिक व्यवस्था को भी ख़त्म कर देगा। असल में सरकार की नीयत है मुनाफा कमाने के लिए उच्च शिक्षा को देशी विदेशी पूँजी के हवाले कर देने की। विभिन्न सरकारी संस्थानों के इंफ्रास्ट्रक्चर का इस्तेमाल देशी विदेशी पूँजी के लिए करने की यह तैयारी है। PPP का मॉडल उच्च शिक्षा में करने का यह रास्ता है।इसकी संरचना में अध्यापकों की स्थायी नियुक्ति संभव नहीं है। जैसा चॉइस विद्यार्थी लेंगे उसके अनुरूप कॉन्ट्रैक्ट पर नियुक्तियाँ होंगी। खर्च को कम करने के लिए तकनीक का प्रयोग करने की इसमें योजना है। अध्यापकों का विकल्प रिकॉर्डिंग और इंटरनेट एवं कंप्यूटर से शिक्षण होगा। इससे बहुत साफ़ संकेत है कि इस पूरी व्यवस्था में चॉइस उसके पास है जिसके पास पैसा होगा। जो कर्ज लेकर पढ़ने की क्षमता रखेगा, उसके लिए यह व्यवस्था होगी। इस व्यवस्था में जहाँ एक संस्थान से दूसरे में क्रेडिट ट्रांसफर के जरिये आवाजाही हो सकेगा - चाहे वह पब्लिक हो या प्राइवेट - तब सामाजिक न्याय को कैसे सुनिश्चित किया जायेगा ? कुलमिलाकर अगर देखें तो CBCS एक बार फिर से नयी तरीके की जाति व्यवस्था को जन्म देगा, जिसमें सिर्फ पैसे वालों के लिए उच्च शिक्षा होगी। CBCS कुछ नहीं बल्कि स्वाधीनता आंदोलन से निकले समानता और कल्याणकारी व्यवस्था के अंत की घोषणा एवं बाज़ार आधारित शिक्षा व्यवस्था की तैयारी है।

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